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Monday, 22 September 2014

आईना

आईना देख कर खुद का वजूद नजर आया
वो पहचाना हुआ चेहरा नजर नहीं आया

बिछड़ गया जो कभी लौट कर नहीं आया
सफ़र में उसके कहीं अपना घर नहीं आया

वो सब एहतराम से करते हैं खून भरोसे का
हमें अब तक भी मगर ये हुनर नहीं आया

मेरे वादे का जुनूँ देख, तुझसे बिछड़ा तो
कभी ख़्वाबों में भी तेरा ज़िकर नहीं आया

दुश्मनी हमने भी की है मगर सलीके से
हमारे लहजे में तुमसा ज़हर नहीं आया