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Tuesday, 21 October 2014

दिवाली

पटाखो कि दुकान से दूर हाथों मे, 
कुछ सिक्के गिनते मैने उसे देखा...

एक गरीब बच्चे कि आखों मे,
मैने दिवाली को मरते देखा.

थी चाह उसे भी नए कपडे पहनने की...
पर उन्ही पूराने कपडो को मैने उसे साफ करते देखा.

तुमने देखा कभी चाँद पर बैठा पानी?
मैने उसके रुखसर पर बैठा देखा.

हम करते है सदा अपने ग़मो कि नुमाईश...
उसे चूप-चाप ग़मो को पीते देखा.

थे नही माँ-बाप उसके..
उसे माँ का प्यार आैर पापा के हाथों की कमी महसूस करते देखा.

जब मैने कहा, "बच्चे, क्या चहिये तुम्हे"?
तो उसे चुप-चाप मुस्कुरा कर "ना" मे सिर हिलाते देखा.

थी वह उम्र बहुत छोटी अभी...
पर उसके अंदर मैने ज़मीर को पलते देखा

रात को सारे शहर कि दीपों कि लौ मे...
मैने उसके हँसते, मगर बेबस चेहरें को देखा.

हम तो जीन्दा है अभी शान से यहा.
पर उसे जीते जी शान से मरते देखा.

नामकूल रही दिवाली मेरी...
जब मैने जिन्दगी के इस दूसरे अजीब से पहेलु को देखा.

कोई मनाता है जश्न
आैर कोई रहता है तरस्ता...

मैने वो देखा..
जो हम सब ने देख कर भी नही देखा.

लोग कहते है, त्योहार होते है जिन्दगी मे खूशीयों के लिए,
 
तो क्यो मैने उसे मन ही मन मे घूटते और तरस्ते देखा?

Monday, 22 September 2014

आईना

आईना देख कर खुद का वजूद नजर आया
वो पहचाना हुआ चेहरा नजर नहीं आया

बिछड़ गया जो कभी लौट कर नहीं आया
सफ़र में उसके कहीं अपना घर नहीं आया

वो सब एहतराम से करते हैं खून भरोसे का
हमें अब तक भी मगर ये हुनर नहीं आया

मेरे वादे का जुनूँ देख, तुझसे बिछड़ा तो
कभी ख़्वाबों में भी तेरा ज़िकर नहीं आया

दुश्मनी हमने भी की है मगर सलीके से
हमारे लहजे में तुमसा ज़हर नहीं आया

Wednesday, 9 July 2014

जीवन बदल रहा है

दुनिया बचपन में बहुत बड़ी हुआ करती थी..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...

बचपन में शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं..
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..


बचपन में दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..

ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है.
अब बच गए इस पल में..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में

लगता है हम सिर्फ भाग रहे हैं..
या शायद जीवन
 बदल रहा है..

अच्छा लगा

बादलों का काफिला आता हुआ अच्छा लगा 
प्यासी इस धरती को हर सावन बड़ा अच्छा लगा 

जिन का सच होना किसी सूरत में मुमकिन न था 
ऐसी ऐसी बातें अक्सर सोचना  अच्छा लगा 

वो तो क्या आता मगर गलत फ़हमियों के साथ 
सारी सारी रात हमको जागना अच्छा लगा 

पहले तो हर कोई इन निगाहों में जचता ही न था 
रफ़्ता रफ़्ता दूसरा फिर तीसरा अच्छा सा लगा 
उस भरी महफ़िल में चंद लम्हों के लिए आना 
उसमे  मेरा आज गुमनाम रहना अच्छा लगा