कैसा है ये सफ़र
मंजर कुछ समझ नहीं आया है
क्या ये है मेरी मंजिल
या साहिल का और कहीं किनारा है
शुरुआत तो कर चुके
काफिर दिल फिर भी बैचेन है
कब क्या करें हम
मन भी हर वक़्त मचलता है
कहता है कुछ और
करना न जाने क्या चाहता है
इशारे दिखे जहाँ
नज़रें पहचान ना पाई है
मेहनत करते हुए
दिल में तीस सी चुभी पाई है
साथ है हर कोई
मन में फिर भी मची तन्हाई है
शुरुआत तो कर चुके
मगर तसल्ली कहाँ पाई है ।।
मंजर कुछ समझ नहीं आया है
क्या ये है मेरी मंजिल
या साहिल का और कहीं किनारा है
शुरुआत तो कर चुके
काफिर दिल फिर भी बैचेन है
कब क्या करें हम
मन भी हर वक़्त मचलता है
कहता है कुछ और
करना न जाने क्या चाहता है
इशारे दिखे जहाँ
नज़रें पहचान ना पाई है
मेहनत करते हुए
दिल में तीस सी चुभी पाई है
साथ है हर कोई
मन में फिर भी मची तन्हाई है
शुरुआत तो कर चुके
मगर तसल्ली कहाँ पाई है ।।
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